रविवार, 13 नवंबर 2022

Part 2 : बनिहाल से श्रीनगर : कश्मीर घाटी में प्रवेश

बनिहाल रेलवे स्टेशन पहुंचते-पहुंचते हमे 2:30 बज चुके थे। लगभग चार-पांच घंटे हम हिचकोले खाने वाली सड़क पर यात्रा कर चुके थे लेकिन थकान का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था। वहां की वादियों में एक अलग ही ताजगी थी। सेब के बागान दिखने शुरू हो गए थे, हिमालय की ऊंची ऊंची पहाड़िया शुरू हो गई थी।

बनिहाल कश्मीर घाटी का एक बड़ा शहर है। बनिहाल बारामुला रेलवे लाइन यहीं से शुरू होती है अतः भारत के किसी भी हिस्से से आने वाले लोग जिन्हें ट्रेन से कश्मीर घाटी में जाना होता है तो यहीं से अपनी यात्रा शुरू करते हैं।

इस ट्रेन में ज्यादातर लोकल लोग ही होते हैं क्योंकि टूरिस्ट या तो फ्लाइट से सीधे श्रीनगर पहुंचते हैं या फिर सड़क मार्ग से श्रीनगर पहुंच जाते हैं। कश्मीर घूमने के लिए श्रीनगर ही बेस पॉइंट है आपको कश्मीर में कहीं भी घूमना है तो आपको श्रीनगर जाना ही होता है कुछ अपवादों को छोड़कर।

क्योंकि रास्ते में हमने कुछ नहीं खाया था इसलिए सोचा था कि बनिहाल रेलवे स्टेशन पहुंचकर वही कुछ खाएंगे। भारत के अन्य शहरों की तरह हमें उम्मीद थी कि रेलवे स्टेशन के पास खाने-पीने की दुकानें होंगी। लेकिन इस मामले में बनिहाल रेलवे स्टेशन पर आप निराश हो सकते हैं क्योंकि वहां खाने पीने की कोई उपलब्धता नहीं है असल में बनिहाल रेलवे स्टेशन बनिहाल शहर से थोड़ी दूरी पर है। मन मार कर हमने वहां पर सेब खरीद लिया औरों से ही काम चला लिया।

बनिहाल रेलवे स्टेशन के गेट पर वहां के लोकल लोग तेजी से भागते दिख रहे थे हमें लगा शायद ट्रेन निकलने वाली है इसलिए लोग भाग रहे हैं। हम भी जल्दी जल्दी पहुंचे और हमने श्रीनगर की टिकट ली। 

श्रीनगर रेलवे स्टेशन को स्थानीय लोग नौगांव के नाम से जानते हैं। हमने जब टिकट लिया तो क्लर्क ने बताया ट्रेन आधे घंटे बाद निकलेगी।  हमने उसी क्लर्क से पूछ लिया अगर ट्रेन आधे घंटे बाद जाएगी तो लोग भाग क्यों रहे हैं अभी से उसने बताया सीट के लिए।
 
तब हम लोगों को माजरा समझ आया। जब हम ट्रेन में पहुंचे तो हमने देखा बैठने की जगह तो छोड़िए खड़े होने की जगह भी मुश्किल से ही मिली भी शायद यही वजह है कि पर्यटक इस ट्रेन से यात्रा नहीं करते हैं। लेकिन स्थानीय लोग बजट में यात्रा करने के लिए इसी ट्रेन का इस्तेमाल करते हैं। 

लोकल लोगों ने बताया कि लैंडस्लाइड और सुरक्षा कारणों से बार-बार सड़कें बंद होने से भी सड़कों से यात्रा बेहद लंबी हो जाती है लेकिन ट्रेन एकदम समय से पहुंचा देती है।

खैर हम टिकट लेकर ट्रेन में किसी तरह सवार हो गए हमें सीट नहीं मिली। हमें सीट की जरूरत भी नहीं थी क्योंकि हमें कश्मीर देखना था। जब यह बात हमने ट्रेन में यात्रा कर रहे लोकल लोगों को बताया कि हम कश्मीर देखने आए हैं, यहां को सुंदरता देखने आए हैं। तो उन लोगों ने हमें दरवाजे के पास जगह दी और खुद पीछे हो गए, जबकि ट्रेन निकलने के 1 घंटे पहले पहुंचकर उन लोगों ने दरवाजे के पास अपने लिए जगह बनाई थी। यह शायद हमारे यूपी बिहार में कोई नहीं करता। मुझे याद है उस समय एक कश्मीरी लड़के ने कहा था आप हमारे मेहमान हैं आप आगे आइए। शायद इसे ही कश्मीर की मेहमानवाजी कहते हैं।

रास्ते में धान की खेती, सेब के बागान और लकड़ी के घर इतने सुंदर लग रहे थे की जिनका जिक्र शब्दों में मुश्किल है। ट्रेन के हर स्टेशन पर इतनी भीड़ होती थी कि मुझे मुंबई की लोकल ट्रेन की याद आने लगी। यहां भी उससे कम भीड़ नहीं थी। इस ट्रेन में मुझे यूपी बिहार के भी कुछ लोग मिले जो कश्मीर में मजदूरी करने गए हुए थे। वह भी श्रीनगर से बनिहाल या अनंतनाग आने जाने के लिए इसी ट्रेन का इस्तेमाल करते हैं।

शाम को 5:00 बजे हमारी ट्रेन श्रीनगर (नौगांव) रेलवे स्टेशन पहुंच गई। रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर हमने देखा तो यहां आस-पास कोई आबादी ही नहीं श्रीनगर रेलवे स्टेशन है उधमपुर की तरह शहर से काफी दूर है। यहां बाहर बस सेना के टैंक और कुछ सवारी गाड़ियां दिख रही थी। ट्रेन में लोकल लोगों ने बताया था कि श्रीनगर स्टेशन से बाहर निकलते ही आपको शेयर्ड बस मिल जाएगी जो आपको आसानी से श्रीनगर के सिटी सेंटर लाल चौकी या फिर डल गेट पहुंचा देगी। बाकी किसी के चक्कर में मत पड़ जाएगा वरना ज्यादा पैसे ले लेंगे। 

इसलिए हम लोग एकदम बेफिक्र हो गए थे कि शेयर्ड बस आराम से मिल जायेंगे। लेकिन बाहर निकल कर देखा तो 2 शेयर्ड बसे फुल होकर निकल चुकी थी अब बस प्राइवेट और तो और सुमो खड़े थे। फिर शुरू हुआ मनमाने दाम मांगने का सिलसिला। अंत में हमने एक ऑटो वाले को ₹500 में श्रीनगर रेलवे स्टेशन से डल गेट तक के लिए बुक किया। 

जबकि शेयर्ड बस का किराया ₹20 प्रति व्यक्ति था। यानी जहां काम ₹80 में होना था वहां ₹500 देने पड़े। इस बात का मलाल हमेशा रहेगा। ऑटो वाला हमें लेकर श्रीनगर की तरफ बढ़ चला। श्रीनगर में हमें जगह जगह पर सेना बख्तरबंद गाड़ियां, चेकिंग करते सेना के जवान। हाथों में बंदूक लहराते, खुली जिप्सी पर पेट्रोलिंग करते पुलिस के जवान दिखे। चूंकि भारत के अन्य हिस्सों के लोग इस मिलिटराइज्ड माहौल के अभ्यस्त नहीं होते हैं अतः पहले पहल तो डर लगने लगा। लेकिन ड्राइवर ने बताया यह यहां की सामान्य बात है आप को डरने की कोई जरूरत नहीं है वह अपना काम करते हैं आप अपना काम करिए।

डल गेट से पहले ही हमारे ऑटो वाले का एक बस से एक्सीडेंट भी हो गया। बेचारे ऑटो ड्राइवर के नए ऑटो का आज तीसरा दिन था और उसका ऑटो आगे से पिचक गया। गलती बस वाले की थी और नुकसान ऑटो वाले का हुआ। उल्टे बस वाले ने ऑटो वाले से कुछ पैसे भी ले लिए। हम लोगों ने ऑटो ड्राइवर की मदद करनी चाहिए लेकिन वह कश्मीरी भाषा में आपस में बहस कर रहे थे जो हम लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए चाह कर भी हम लोग कुछ ना कर पाए। 

इसके बाद ऑटो ड्राइवर ने हम लोगों को डल गेट के पास एक खूबसूरत से होमस्टे पर छोड़ दिया। इस होमस्टे के बारे में भी हमें उसी ड्राइवर ने बताया था। 

यह होमस्टे मुदस्सिर भाई का था। मुदस्सिर भाई नीचे खुद रहते थे और ऊपर वाले हिस्से को उन्होंने होमस्टे बना दिया था। एकदम डल लेक के किनारे, हमारे कमरे से भी डल की सुंदरता दिखती थी। 

हम लोग वहां पहुंचकर थोड़ा फ्रेश हुए से खिड़की से डल का नजारा देखने लगे। नजारा इतना खूबसूरत था कि हम खुद को रोक ना सके और कपड़े पहन कर पहले निकल पड़े। अगर मैदानी इलाकों में हम इतनी यात्रा करने दो गहरी नींद के अलावा और कोई ऑप्शन नहीं दिखेगा। लेकिन यह कश्मीर की वादियां हैं और यहां आपको थकान कम ही होती है।  डल लेक बहुत बड़ा लेक है। 60 हजार लोग तो इसके अंदर ही रहते हैं। पर्यटकों के लिए डल गेट के बगल से ही एक रास्ता जाता है जिस पर कई घाट बने हुए हैं और हर घाटों के अलग अलग नंबर है। इसकी तुलना आप मुंबई के मरीन ड्राइव या गोरखपुर के नौका विहार से कर सकते हैं कई किलोमीटर तक आप चलते चले जाइए ना डल झील खत्म होगी ना उसकी सुंदरता कम होगी। 

चलते चलते हम बहुत आगे आ गए फिर हमें याद आया कि हमें इतना ही वापस भी जाना होगा। अंधेरा हो चुका था हम लोग वापस लौटने लगे। एक बात आपको बता दूं कि कश्मीर में सूर्यास्त देर से होता है 7:45 तक तो बिल्कुल उजाला था। लगभग 9:00 बजे हम वापस होमस्टे पहुंचे। 

अब भूख तगड़ी लगी थी। अगर आप उत्तर भारत के हैं तो आपको चपाती खाने की आदत हो सकती है जो आपको कश्मीर में बड़ी मुश्किल से मिलेगी। वहां बस चावल खाते हैं। लेकिन हमारी किस्मत अच्छी थी हमारे होमस्टे के ठीक बगल में ही एक नॉर्थ इंडियन रेस्टोरेंट्स था। वहां हमें शुद्ध ताजा और शाकाहारी भोजन मिला। सब ने छककर खाया और वही डल के किनारे बैठ गए। रात के 11:00 बज गए थे। 

रात में ताल के ऊपर चमचमाती शिकारा इधर उधर आ जा रही थी। ठंडी ठंडी हवाएं एक अलग ही एहसास करा रही थी। वह अलग ही एहसास था। अंत में हम लोग 12:00 बजे के बाद जब आंख खुद ही बंद होने लगी तब बिस्तर पर पहुंचे और जो नींद आई वो सुबह 9 बजे के बाद ही खुली।

जुलाई के महीने में श्रीनगर में मौसम में बहुत ज्यादा ठंडी नहीं होती है जैसे हमारे उत्तर भारत में फरवरी या नवंबर का महीना होता है उसी तरह वहां जून जुलाई-अगस्त में मौसम रहता है यानी रात में ठंड पड़ती है दिन में आप आराम बिना गर्म कपड़ों के और बिना एसी के रह सकते हैं। रात में आप को कंबल की जरूरत पड़ेगी।

क्रमश 

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

Part 1 : और फिर शुरू हुआ मिशन कश्मीर : गोरखपुर से बनिहाल

21 जुलाई 2022 की रात को मैंने, सैफ ने और शुभम ने गोरखपुर से अपनी यात्रा शुरू की। मिस्टर प्रेसिडेंट (विकास) हम लोगों को दिल्ली से ज्वाइन करने वाले थे। घर से हम सभी खा पीकर आराम से निकले और फिर ट्रेन में जाते ही सो गए।

सुबह आंख खुली तो ट्रेन मुरादाबाद के आगे तक पहुंच चुकी थी लेकिन भारतीय रेलवे के अघोषित नियमानुसार ट्रेन सिर्फ 3 घंटे की देरी से चल रही थी। 

पहले हम लोगों ने तय किया था कि सुबह पहुंच कर दिल्ली भी घूमेंगे क्योंकि हमारे पास पूरे दिन का समय है। क्योंकि आगे उधमपुर की ट्रेन रात 8:00 बजे से पुरानी दिल्ली स्टेशन से थी। लेकिन ट्रेन ने हमें लगभग दोपहर 12:00 बजे आनंद विहार पहुंचाया तो हम लोगों ने अपने दिल्ली घूमने के प्लान में कटौती कि और सबसे पहले भूख मिटाने की व्यवस्था में जुट गए। 
आनंद विहार 

दिल्ली को जायके का शहर कहा जा सकता है। हालांकि मैंने सुना है इंदौर खाने-पीने के मामले में दिल्ली से बेहतर है लेकिन मुझे दिल्ली भी कहीं से कम नहीं लगता है। 

दिल्ली उतरकर हमने छोले भटूरे का स्वाद लेने का मन बनाया। दिल्ली में मेरे सबसे फेवरेट छोले भटूरे मिलते हैं पहाड़गंज में सीताराम दीवान चंद छोले भटूरे। छोले भटूरे के शौकीनों के लिए यह बड़ा नाम है। हम ट्रेन से आनंद विहार उतरने के बाद थोड़ा फ्रेश हुए फिर पहुंचे पहाड़गंज छोला भटूरे खाने।

सीता राम दीवान चंद छोले भटूरे की दुकान

मैं तो यहां पहले कई बार खा चुका हूं लेकिन मेरे बाकी साथियों के लिए यह नई जगह थी। लेकिन टेस्ट ने उन दोनों को भी निराश नहीं किया और दो भटूरों में ही सारा भूख रफूचक्कर हो गया।
सीताराम दीवान चंद के छोले भटूरे 

अब हमारे पास 5-6 घंटे बचे हुए थे लेकिन हम कहीं दूर घूमने नहीं जाना चाहते थे। क्योंकि दिल्ली का ट्रैफिक कहां फंसा दे और आपकी ट्रेन मिस हो जाएं यह रिस्क भला कौन लेने जाए! कश्मीर के जन्नत को छोड़कर इस दिल्ली के ट्रैफिक जाम में कौन फसना चाहे।

अतः हमने तय किया कि यहां से सीपी चलेंगे। फिर हम लोगों ने थोड़ा सीपी का चक्कर लगाया और फिर पहुंचे चांदनी चौक। चांदनी चौक अगर आप पिछले 3-4 सालों में नहीं गए हैं तो जाइए, चांदनी चौक एकदम बदल गया है, एकदम चकाचक हो गया है। 

चांदनी चौक

यहीं बगल में कैमरे के शौकीनों के लिए सबसे बड़ा मार्केट कूचा चौधरी मार्केट भी है, जहां से मैंने अपने कैमरे के कुछ असेसरीज खरीदे। हालांकि चांदनी चैक तो दुनिया के सबसे बड़े मार्केट में से एक है। यहां आपको हर चीज मिल सकती है, बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी।

चूंकि पुराना दिल्ली रेलवे स्टेशन, चांदनी चौक और जामा मस्जिद आसपास ही है तो उसके बाद हम 3 तीनों पहुंचे जामा मस्जिद। लाला किला भी सामने था लेकिन वो स्वतंत्रता दिवस की तैयारी के लिए बंद हो जाता है 1 महीने पहले ही, तो वहां का प्लान भी कैंसिल करना पड़ा। हालांकि मैं तो दिल्ली लाल किला कई बार जा चुका हूं लेकिन साथियों का मन था। अब जब जामा मस्जिद पहुंच ही गए हमने सोचा क्यों ना डिनर में थोड़ा पुरानी दिल्ली के स्वाद का तड़का लगाया जाए।


उसके बाद थोड़ा-बहुत जामा मस्जिद में समय बिताने के बाद लगभग 6:00 बजे हम पहुंचे पुरानी दिल्ली मटियामहल के अल यामीन रेस्टोरेंट्स। यहां मैं पहली बार गया था चूंकि मेरे कजिन सैफ को पुरानी दिल्ली के नॉनवेज का जायका लेना लेना था जिसके बारे में उसने बहुत सुन रखा था। हालांकि यह बात सही भी है कि नॉनवेज खाने वालों के लिए पूरे नार्थ इंडिया में लखनऊ अमीनाबाद और पुरानी दिल्ली मटियामहल से बेहतर शायद ही कोई जगह हो।

अलयामीन में हमने नॉन वेज प्लैटर की जो दावत उड़ाई वह ताउम्र याद रहेगी। चूंकि शुभम एक माह के लिए शाकाहारी था क्योंकि सावन का महीना चल रहा था अतः उसके लिए अलयामीन में ही शाकाहारी प्लैटर की भी व्यवस्था थी। 



खाने के बाद शुभम को ‘मोहब्बत का शरबत’ भी पीना था फिर उसकी भी तलाश पूरी हुई और सैफ और शुभम ने मिलकर मोहब्बत का शरबत भी चखा। मेरे पेट में अब तनिक भी जगह नहीं थी अतः आज के दिन खाने पीने पर विराम लगा दिया गया।

अल यमीन का फेमस नॉनवेज प्लैटर

यहां हम लोगों को खाते पीते 7:15 बज गए। जब घड़ी पर नजर गई तो फिर भाग कर हम लोग पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहां पर मिस्टर प्रेसिडेंट पहले पहुंच कर है सभी का इंतजार कर रहे थे। अब उन्होंने भी आधिकारिक रूप से इस यात्रा को ज्वाइन किया और हम लोग ट्रेन में जाकर अपना-अपना बर्थ पकड़ कर सो गए। दिनभर की थका देने वाली यात्रा के बाद हिचकोले खाते ट्रेन में जो नींद आई वो जम्मू जाकर ही खुली। 

जब नींद खुली तो सबके फोन से नेटवर्क गायब हो चुके थे। यह इस बात की तस्दीक थी कि हम जम्मू कश्मीर में प्रवेश कर चुके हैं। ट्रेन के विंडो से छोटी छोटी पहाड़ियां और जगह जगह झरने दिखने लगे थे। ट्रेन पहले जम्मू पहुंची फिर उधमपुर। 
उधमपुर रेलवे स्टेशन 

उधमपुर हमसब लगभग 9 बजे पहुंचे। उधमपुर का रेलवे स्टेशन एकदम शहर से बाहर है। कोई आबादी नहीं स्टेशन के पास। ट्रेन से उतरकर हम लोग बाहर निकले थोड़ी दूर पर किसी तरह एक मिनी बस मिल गई जो एमएच चौक तक हमें ले गई। 

एमएच चौक का पूरा नाम मिलिट्री हॉस्पिटल चौक है। यहीं से बनिहाल या फिर रामबन के लिए सवारीगाड़ी मिलती हैं। यह सवारी गाड़ी टाटा सुमो भी हो सकती है और बस अथवा टेंपो ट्ररवेलर भी।
 एमएच चौक

उधमपुर उतरने के बाद पहली बार मैंने इतना हैवी मिलिटराइज्ड एरिया देखा। जगह-जगह सेना के जवान बंदूक लिए खड़े थे, बड़ी-बड़ी बख्तरबंद गाड़िया सड़कों पर दिखाई दे रही थी।

एचएम चौक पर ही हम पेड वासरूम की सुविधा उपलब्ध है वहीं हम लोगों फ्रेश हुए, चाय पी और टेंपो ट्रेवेलर में सवार होकर बनिहाल के लिए निकले। उधमपुर में उम्मीद के अनुसार बनिहाल के लिए ज्यादा साधन नहीं उपलब्ध है। पूछने पर लोगों ने बताया कि कश्मीर जाने वाले जम्मू से ही डायरेक्ट बनिहाल चले जाते हैं। बहुत कम लोग उधमपुर आते है।

खैर उधमपुर से यात्रा शुरू हुई। इस यात्रा एनएच44 पर होती है। चुकी उसी समय अमरनाथ यात्रा चल रही थी इसलिए हम लोगों को रास्ते में कॉनवाय के गुजरने तक का एक घंटे इंतजार करना पड़ा। फिर आगे लैंड स्लाइड में भी हम लोग थोड़ी देर फंसे रहे। धीरे धीरे चलते चलते 2 बजे हम लोग बनिहाल पहुंच ही गए।

बनिहाल रेलवे स्टेशन